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टू ऑफ पेंटाकल्स

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अपराईट भविष्य कथन का महत्व



सद्भाव, नई परियोजनाएं, सहायक, एकाधिक प्राथमिकताएं, समय प्रबंधन, प्राथमिकता, अनुकूलन क्षमता

इस कार्ड में दर्शाई गई छवी महर्षी शुक्राचार्य के युवा अवस्था की है। वे असुर लोक के गुरू थे। आपके अंदर का सद्भाव इस कार्ड में दिखाई दे रहा है। आपके लिए नई परियोजनाएं निर्माण हो रहे हैं। उसे अंजाम देने के लिए आपको सहायक मिल रहे हैं। एकाधिक प्राथमिकताएं निश्चित करे। अनेक योजनाए शुरू होगी तो समय प्रबंधन को प्राथमिकता दीजिए। तभी अनुकूलन क्षमता प्रचंड बढेगी जो बेहतरीन परिणाम देंगे।

रिवर्स भविष्य कथन



कठिनाई, निराशा, अति-प्रतिबद्ध, पुनर्मूल्यांकन।

निर्णय लेते हुए आपको आंतरिक कठिनाई का सामना करना होगा। एक कश्म कश में आप हमेशा अपने आप को पाओगे। इसमें निराशा के क्षण भी आयेंगे। अति-प्रतिबद्ध होने की कोई जरुरत नहीं है। नोर्मल रहने का प्रयास कीजिए। समय समय पर पुनर्मूल्यांकन अति आवश्यक है।

युरोपिय टैरो कार्ड अभ्यास वस्तु



सर्कस के विशिष्ट लाल टोपी और हरे रंग के जूते पहने हुए एक जोकर हरे रंग के रिबन के साथ एवम दो पेंटाकल्स के साथ खेल रहा है। पृष्ठभूमि में दो जहाज समुद्र की लहरों के साथ खेल रहे हैं।

प्राचीन भारतीय टैरो कार्ड अभ्यास वस्तु


एक ज़िग्लर (बाजीगर) समुद्र के किनारे दो पेंटाकल्स के साथ खेल रहा है। चमकते आकाश में बादल छाए हुए हैं व्यक्ति अपने लाल कपड़ों में अपने खेल का आनंद ले रहा है। वह इतनी तेजी से खेल रहा है कि हवा का झोंका देखा जा सकता है।

यह युवक शुक्राचार्य है। खुद को दानवों का गुरु जताने से पहले यह आंदोलित विचारो के साथ जूझ रहे थे। (मेरा विश्वास करो, साधू महात्मा भी कभी युवा होते हैं, वे पैदाइशी बूढ़े नहीं होते।)

tarot.ideazunlimited.net.pentacles comparison वह ब्रह्मांड में जीवन के सभी तत्वों का परीक्षण घुमा घुमाकर कर रहा है। वह देवताओं या असुरों को छात्रों के रूप में स्वीकार करने के लिए दुविधा में थे। वह असुरों के बहुत शक्तिशाली गुरु बन गए।

(महर्षी शुक्राचार्यजी की विस्तृत कथा ।)

जम्बूद्वीप के इलावर्त (आज का रशिया) क्षे‍त्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में इलावर्त राज्य था। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि अंतिम बार संभवत: शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था।

शुक्राचार्य को मृत व्यक्ति को जीवित करने की विद्या आती थी। इस विद्या के अविष्कार भगवान शंकर थे। इस विद्या द्वारा मृत शरीर को जीवित किया जा सकता है। यह विद्या असुरों के गुरु शुक्राचार्य को याद थी। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे।

शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी। मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य आरंभ में अंगिरस ऋषि के शिष्य बने किंतु जब वे (अंगिरस) अपने पुत्र बृहस्पति के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने अंगिरस का आश्रम छोड़कर गौतम ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर जी की आराधना कर के मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती गई और देवता असहाय हो गए। ऐसे में उन्होंने भगवान शंकर की शरण ली। शुक्राचार्य द्वार मृत संजीवीनी का अनुचित प्रयोग करने के कारण भगवान शंकर को बहुत क्रोध आया। क्रोधावश उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल लिया।

इसके बाद शुक्राचार्य शिवजी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त किया। तब उन्होंने प्रियवृत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह कर अपना नया जीवन शुरू किया। उससे उन को चार पुत्र हुए। भार्गव के नाम से प्रसिद्ध शुक्राचार्य का शुक्र नाम कैसे पड़ा इस संबंध में वामन पुराण में विस्तार से उल्लेख मिलता है। कथा के अनुसार जब शुक्राचार्य को शंकर भगवान ने निगल लिया तब शंकरजी के उदर में जाकर कवि (शुक्राचार्य) ने शंकर भगवान की स्तुति प्रारंभ कर दी जिससे प्रसन्न हो कर शिव ने उन को बाहर निकलने कि अनुमति दे दी। जब वे एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में ही विचरते रहे लेकिन कोई रास्ता न मिलने पर वे पुनः शिव स्तुति करने लगे।

तब भगवान शंकर ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आ जाओ। आज से समस्त चराचर जगत में तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पाकर भार्गव भगवान शंकर के शिश्न से निकल आए। तब से शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए।

शुक्राचार्य एक श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि थे। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।

माना जाता है कि जब राजा बलि को पाताल लोक का राज बना दिया गया था तब शुक्राचार्य भी उनके साथ चले गए थे। दूसरी मान्यता अनुसार दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक वहां रहे। शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व/अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया। अरब देशों का महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध के बारे में 'हिस्ट्री ऑफ पर्शिया' में उल्लेख मिलता है ।





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